Saturday, September 15, 2007

शाम कि तनहाइयो में,
रात कि गहराइयो में,
कठिनाइयो के धुंधलके में,
कभी ना घबराना आप,
चाहे खडे पहाड़ हो या,
हो उंचे नीचे पथरीले रास्ते,
कभी ना रूक जाना आप,
आग के इस दरिया को,
कर जायोगी पार आप,
ये है मुझे पुरा विश्वास,
जिंदगी के हर उस मोड़,
पर आप मुझे,
हमेशा अपने साथ पायोगी,
जनमदिन के इस,
शुभ अवसर पर,
मिले खुशियाँ आपको,
ढ़ेर सार्री,
इससे बड़ा आपके,
जीवन में हो,
नही सकता बड़ा,
कोई भी उपहार,
मेरी तरफ से,
आपको इस
जन्मदिन पर,
ढ़ेर सारा,
प्यार।



लेखक :-

अधर कुमार रस्तोगी



Wednesday, September 5, 2007

अलविदा जिंदगी

इस रात कि कोई सुबह नही
येः रात खतम होती ही नही
हर बार का काला अँधियारा
बढता ही जाता है
हर दिन को अपने में,
काले सायों में
भरता ही चला जाता हूँ,
अब ये रात कभी ख़त्म होगी ही नही
इंतज़ार ख़त्म हुआ
अब यहाँ
कोई उम्मीद कि किरण बची ही नही
अब मे पूरी ही टूट गया हूँ
अब के कभी जी पायूँगा नही
हसी मेरी विलुप्त हुई
गम के अमीन में अब डूब गया
हाथ कोई पक्डेगा नही
बस अलविदा कहता हूँ
अब तुझसे जिंदगी
बहुत जी कर देख चूका हूँ
अब मौत के सुखद आंगन में
खिलती मृत्यु कि गोद में
बस सो जायूँगा
ना जागने के लिए कभी,
अलविदा जिंदगी , अलविदा जिंदगी

में चलता गया

में चलता गया
पथरीले रास्तों पर,
गिरता रह खा खा खा ठोकर
कि ठोकर लगी कई कई बार
जख्मी हुआ कई बार मगर
दिल मे रौशनी जलाये रखा
खुदा तेरे नाम का
रौशनी जलाये रखा
जब भी तुने मेरा हाथ थमा,
अ रब ख़ुशी के मारे
बहुत मे रोया
लगा कि अब तू मेरे साथ
है क्यों कि
मेरे हाथों में तेरा हाथ हां
मगर
मेरा हाथ तेरे हाथ से छुट गया
हर बार ओर मे ऐसा गिरा
कि में उठ ना सका
बार बार अब रास्ता
खत्म सा लगता है,
ओर मंजिल नही दिखती है
इसलिये में
तेरे आगोश में खोने आ रह हूँ
खुदा मे तेरी गोदी मे
सोने आ रह हूँ।
हर शख्स ने मुखोटा लगाया है ,
अन्दर से कुछ ओर,
बाहर से कुछ ओर,
हर शख्स नजर आया है ,
कहते है की हम आगे निकल आये है ,
ज़माने से,
कहीँ दूर,
मगर जब बात इन्सान की इज्जत की हो,
हर कोई झूठा ही मैने पाया ह,
खुद को पाक साबित करने वाले,
बातो बातो मै हँसी मजाक करने वाले,
जब खुद का अक्स ऐनक मै देखते है घबराते ह,
दूसरो की इज्जत को हाथ डालने वाले,
बात खुद पे आये तो बस घबरा जाते है ,
कितनी सफ़ेद पोश है
दुनिया हम जानते ह,
हमाम मै सबको नंगा ही खड़ा पाया है
सब सच को झूठ बनाने वाली दुनिया है ,
जूठे का ही बोलबाला है
मैने पाया ह,
हम मानते है
की कोई पाक नही है ,
इसलिये लोगो पर ऊँगली उठाने से पहले,
हर बार पहले खुद को आजमाया है।

क्या सच ही

क्या सच ही
उम्र के साथ इन्सान
अनुभव्युक्त हो जाता ह,
फीर क्यों चलते चलते
पथ पर धुन्दल्का सा छाता ह,
मैं भी चला
इस जीवन पथ पर
जीवन का अर्थ पाने को,
पर खुद को ही खो बैठा हू,
खोजूं क्या अब ज़माने को,
मेरी अन्तिम यात्रा
आरम्भ होने ही वाली है
उजले उजले दिन नही होते,
ना राते ही कलि है
सब कुछ इन अनुभवों से
परे सा मुझे नजर यूं आता है
ऐसा लगता है
मेरा इस जग से ना
कोई नाता हमे
इस जग का हुआ
ही कब था ,
जो आज मे जग मे समां पाऊंगा ?
मेरी सोच तो इस अधूरे पन से
कहीँ जायदा है,
इन सारी सोचो के पिछे,
उस पर ब्रह्म से नाता है
अब लगता ह
मेरा अंत निकट को आता है ...

क्यों राख बना डाला

मे जला
मेरे ख्वाब मेरे साथ जले,
मे रोया ,
मेरे ख्वाब मेरे साथ रोये,
मे चिलाया ,
पर तुम ना मेरे साथ रोये,
मैने जी जान से अपने लीया सपने संजोये,
पर तुने मेरे ख्वाबों को,
ना समझा मेरी बातो को,
कोई पागल कहा,
ओर दीवाना कहा,
इसलिये हर पल
मेरे साथ मेरे ख्वाब रोये,
तुमारे आंसू देख,
मे अपने आंसू पोंछ लेता हू
पर अकेले मे कभी रो दीया करता हू
फीर खुद से सवाल करता हू
जब मे एक इन्सान था ,
तो ख्वाब दिए क्यों थे?
क्यों बेटा बना कर पला मुझे ?
अपने आंगन मे बाबुल तुने,
क्यों खिलाया,
मार क्यों ना डाला मुझे?
जो मेरी खुशियाँ तेरी आबरू की मौत थी
तो क्यों ना जीते जी जला दल मुझे?
मेरे ख्वाबों के ही साथ मे?
क्यों ऐसे जिन्दगी दी की?
मे ना जी सका ,
ओर ना मर ही सका !
सिसकती एक आह को
क्यों राख बना डाला तुमने?

दर्द

दर्द मै यू डूबना मुझे भी भाता नहीं
मै जब भी कुछ मुस्कुराता हुआ सा
गीत लिखने बैठा हू
मेरी बेबसी के आंसू बरबस निकल आते ह
की मैं जो पाने चला tha
वो पा ना सका
ओर जाने किस नशे
मै खुद को खो बैठा हू.

मै भी इंतजार मे हू के,
किस दिन मेरी जिन्दगी
दर्द के समंदर से नहा कर निकलेगी
उस दिन मे भी खुद को इस बेपनाह
दर्द से बाहर
पर कर अपनी वास्तविक
खूबसूरती को देख सकूँगा।
चाहत के पुष्प चढाये हमने
पीड़ाओं के मन्दिर में
फिरते रहे तेरी परछाई खोजते
आकांक्षाओं के खण्डहर में
कई बार डूबकर देखा हमने
विरह की गहराईयों में
मिला न कोई हीरा-मोती
इस दर्द के समन्दर में..........

यह यातनाओं का सफर
और लम्बे चौड़े फ़ासले
लँगडाकर चलते है अब तो
दुःख- दर्द के ये क़ाफिले
ढोयेंगी कब तक हमें
साँसों की बैसाखियाँक्यों नही
अब टूट जाते
हसरतों के ये सिलसिले ॰॰॰॰

तेरे सूखे वादों से
दिल की धरती हुई न नम
बिन रिमझिम के निकल गया
इंतज़ार का यह मौसम
ठंडी हवा भी बंद हो गई
राह चलते अब जलते हैं
उड़ती धूल अब अपने सफ़र में
कहीं ज्यादा,
कहीं कम ॰॰॰॰ ।

जो पास रहे पत्थर से बनकर
वे कभी न समझें अपना ग़म
कभी न निकली इस सुन्दर साज़ से
कोई लय या कोई सरगम
जल से खाली मेघ थे जो
बारिश की उनसे आस लगाई
सोचें -अब माथा पकड़
कर कितने मूर्ख निकलें हम ॰॰॰॰ ।

Monday, September 3, 2007

होती नहीं रिहाई

उखड़ी- उखड़ी साँसें,
क़दम कदम रूसवाई
अंग अंग को डसती अब,
साँप साँप तनहाई ।

तपते जलते राहों में,
कदम कदम पर धूल
बूढे बूढे पेड़ों पर
सूखे सूखे फूल ।

टुकड़े टुकड़े आशा की
फड़ फड़ करती हँसी,
ज्यों पिंजरे में कैद कोई
पँख तोड़ता पंछी ।

इसी पिंजरें में बँद है
मैं और मेरी तनहाई,
छटपटाते है हम दोनों
होती नहीं रिहाई ।।"

दर्द अपने अपने

जीवन संग्राम में जूझते,
संघर्ष करते लोग
कभी रोते कभी हँसते
कभी मर मर जीते लोग ।

कभी सीनों में धड़कती
उम्मीदों की हलचल,
कभी बनते कभी टूटते
दिलों में ताजमहल ।

पत्थर जैसी परिस्थितियों के
बनते रहे पहाड़
भविष्य उलझा पड़ा है जैसे
काँटे- काँटे झाड़ ।

चेहरे पर अंकित अब
पीड़ा की अमिट प्रथा
हर भाषा में लिखी हुई
यातनाओं की कथा ।

जोश उबाल और आक्रोश
सीने में पलते हर दम
चुप चुप ह्रदय में उतरते
सीढी सीढी ग़म ।

दर्द की सूली पर टँगा
आज किसान औ' मज़दूरहै
सबके हिस्से आ रहे
ज़ख्म और ऩासूर ।

महबूबा से बिछुड़ा प्रेमी
खड़ा है शाम ढ़ले
ग़मों का स़हरा बाँध
करविरह की आग जले ।

कहीं निःसहाय विधवा सी
ठंडी ठंडी आह
कहीं बवंडर से घिरी सुहागिन
ढूँढे अपनी राह ।

आँगन में बैठी माँ बेचारी
दुःख से घिरी हर सू
भूख से बच्चे रो रहे
क़तरा क़तरा आँसू ।

बोझल बोझल है ज़िन्दगी
टुकड़े टुकड़े सपने
यहाँ तो बस पी रहे सभी
केवल दर्द अपने अपने ।।"

"मूमल"

मेरी सबसे अच्छी दोस्त,
मुझे सबसे पहले कलम पकड़कर "लिखना" सिखाया,
आज उसकी बारहवी बरसी है ।
आज ही के दिन वर्ष १९९५ मे एक सड़क दुर्घटना के बाद दिल्ली में उसका निधन हो गया।
जब वो हम सभी को छोड़कर जा रही थी, तब में उसके साथ ना था। ।




वो जा रही थी,
पर कोई भी ये मानने को तैयार ना था
उसकी साँसों की डोर टूट सी रही थी
उसका अंत सभी को साक्षात् दिख रहा था
पर फिर भी सभी लोग उसके लिये विधि से लड़ रहे थे
जान बचाने वाले जवाब दे चुके थे
पर फिर भी आस की एक किरण बाकी थी
हम उसे बचाने की नाकामयाब कोशिश कर रहे थे
उसका जाना तय था,
पर हमें ये मंज़ूर न था
हम उसे किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहते थे
हम उसकी ज़िन्दगी उस उपर वाले से छीन लेना चाहते थे
और जब हमारी ये कोशिश
हमें नाकामयाब होती दिखाई दी
तो हम उसके लिये भीख माँगने लगे थे
जिसने कभी भूलकर भी भगवान का नाम न लिया था
वो भी सारी रंजिशे भूलकर बस राम राम रट रहा था
पर आज शायद आज वहाँ रहम का नामो-निशां न रह गया था
और आखिर वो घडी आ ही गई
उसके जीवन की डोर हमारे हाथों से फिसलती प्रतीत हुई
और अंततः छूट गई
वो आँसुओं का सैलाब जो हम सब की आँखों
मे दबा थायकायक फूट पड़ावो जा चुकी थी,
हम सबको छोड़कर,
इस जहां को छोड़
अमनो-चैन की उस दूसरी दुनिया में
उसके मुख पर वो चिर-परिचित मुस्कान थी
जैसे वो हमारे रोने का परिहास उड़ा रही हो
कितने इत्मीनान से उतार फेंका था,
उसने ज़िन्दगी का चोला
और मौत का जामा पहन लिया था
वह पीछे छोड़ गई थी,
एक अजीब सा खालीपन,
"मूमल" एक रिक्तता,
एक सन्नाटा............"

यहाँ अँधेरा है ॰॰॰

"अपनी मुस्कुराहटों की रोशनी फैला दो,
यहां अँधेरा है ॰॰॰

हँसती हुई आँखों के दो चिराग जला दो,
यहाँ अँधेरा है ॰॰॰

बहुत दिनों से इस कमरे में
अमावस का पहरा है
अपने चमकते चेहरे से इसे जगमगा दो,
यहाँ अँधेरा है ॰॰॰

खिलखिलाते हो,
तो होंठों सेफूटती है फूलझड़ियाँ,
अपने सुर्ख होंठों के दो फूल खिला दो,
यहाँ अँधेरा है ॰॰॰

कहाँ हो,
किधर हो,
ढूँढता फिरता हूं,
कब से तुम्हे
ज़रा अपनी पद-चाप सुना दो
यहाँ अँधेरा है ॰॰॰
बेरंग और बुझा सा खो गया हूँ,

गहरे तमस में
आज दीवाली का कोई गीत गुनगुना दो
यहाँ अँधेरा है ॰॰॰

हँसती हुई आंखों के
दो चिराग जला दो,
यहाँ अँधेरा है ॰॰॰।"

जब नयी राह चलने लगे ......

जीवन के इक मोड़ पर,
जब नयी राह चलने लगे
तेरी आँखों के चिराग
इस दिल मे जलने लगे ।

दर्द जो तूने दिया,
उसके लिये तेरा शुक्रिया
अब तो अपने जिस्म में
कई रंग घुलने लगे ।

मुरझा रहे इस पेड़ को
तूने दिया जो गंगाजल,
अब तो अपने चारों तरफ
फूल ही फूल खिलने लगे ।

बारिशों के मौसम में
तुम भी बरसे इस तरह
पुराने ज़ख्मों के दाग सब
अब धीरे धीरे धुलने लगे ।