Monday, September 3, 2007

दर्द अपने अपने

जीवन संग्राम में जूझते,
संघर्ष करते लोग
कभी रोते कभी हँसते
कभी मर मर जीते लोग ।

कभी सीनों में धड़कती
उम्मीदों की हलचल,
कभी बनते कभी टूटते
दिलों में ताजमहल ।

पत्थर जैसी परिस्थितियों के
बनते रहे पहाड़
भविष्य उलझा पड़ा है जैसे
काँटे- काँटे झाड़ ।

चेहरे पर अंकित अब
पीड़ा की अमिट प्रथा
हर भाषा में लिखी हुई
यातनाओं की कथा ।

जोश उबाल और आक्रोश
सीने में पलते हर दम
चुप चुप ह्रदय में उतरते
सीढी सीढी ग़म ।

दर्द की सूली पर टँगा
आज किसान औ' मज़दूरहै
सबके हिस्से आ रहे
ज़ख्म और ऩासूर ।

महबूबा से बिछुड़ा प्रेमी
खड़ा है शाम ढ़ले
ग़मों का स़हरा बाँध
करविरह की आग जले ।

कहीं निःसहाय विधवा सी
ठंडी ठंडी आह
कहीं बवंडर से घिरी सुहागिन
ढूँढे अपनी राह ।

आँगन में बैठी माँ बेचारी
दुःख से घिरी हर सू
भूख से बच्चे रो रहे
क़तरा क़तरा आँसू ।

बोझल बोझल है ज़िन्दगी
टुकड़े टुकड़े सपने
यहाँ तो बस पी रहे सभी
केवल दर्द अपने अपने ।।"

1 comment:

मीनाक्षी said...

रस्तोगी जी
"यहाँ तो बस पी रहे सभी
केवल दर्द अपने अपने ।।"
आपकी कविता में दर्द को गहराई से अनुभव किया । सच है कि सभी अपना-अपना दर्द ही पीते हैं ।