Wednesday, September 5, 2007

अलविदा जिंदगी

इस रात कि कोई सुबह नही
येः रात खतम होती ही नही
हर बार का काला अँधियारा
बढता ही जाता है
हर दिन को अपने में,
काले सायों में
भरता ही चला जाता हूँ,
अब ये रात कभी ख़त्म होगी ही नही
इंतज़ार ख़त्म हुआ
अब यहाँ
कोई उम्मीद कि किरण बची ही नही
अब मे पूरी ही टूट गया हूँ
अब के कभी जी पायूँगा नही
हसी मेरी विलुप्त हुई
गम के अमीन में अब डूब गया
हाथ कोई पक्डेगा नही
बस अलविदा कहता हूँ
अब तुझसे जिंदगी
बहुत जी कर देख चूका हूँ
अब मौत के सुखद आंगन में
खिलती मृत्यु कि गोद में
बस सो जायूँगा
ना जागने के लिए कभी,
अलविदा जिंदगी , अलविदा जिंदगी

में चलता गया

में चलता गया
पथरीले रास्तों पर,
गिरता रह खा खा खा ठोकर
कि ठोकर लगी कई कई बार
जख्मी हुआ कई बार मगर
दिल मे रौशनी जलाये रखा
खुदा तेरे नाम का
रौशनी जलाये रखा
जब भी तुने मेरा हाथ थमा,
अ रब ख़ुशी के मारे
बहुत मे रोया
लगा कि अब तू मेरे साथ
है क्यों कि
मेरे हाथों में तेरा हाथ हां
मगर
मेरा हाथ तेरे हाथ से छुट गया
हर बार ओर मे ऐसा गिरा
कि में उठ ना सका
बार बार अब रास्ता
खत्म सा लगता है,
ओर मंजिल नही दिखती है
इसलिये में
तेरे आगोश में खोने आ रह हूँ
खुदा मे तेरी गोदी मे
सोने आ रह हूँ।
हर शख्स ने मुखोटा लगाया है ,
अन्दर से कुछ ओर,
बाहर से कुछ ओर,
हर शख्स नजर आया है ,
कहते है की हम आगे निकल आये है ,
ज़माने से,
कहीँ दूर,
मगर जब बात इन्सान की इज्जत की हो,
हर कोई झूठा ही मैने पाया ह,
खुद को पाक साबित करने वाले,
बातो बातो मै हँसी मजाक करने वाले,
जब खुद का अक्स ऐनक मै देखते है घबराते ह,
दूसरो की इज्जत को हाथ डालने वाले,
बात खुद पे आये तो बस घबरा जाते है ,
कितनी सफ़ेद पोश है
दुनिया हम जानते ह,
हमाम मै सबको नंगा ही खड़ा पाया है
सब सच को झूठ बनाने वाली दुनिया है ,
जूठे का ही बोलबाला है
मैने पाया ह,
हम मानते है
की कोई पाक नही है ,
इसलिये लोगो पर ऊँगली उठाने से पहले,
हर बार पहले खुद को आजमाया है।

क्या सच ही

क्या सच ही
उम्र के साथ इन्सान
अनुभव्युक्त हो जाता ह,
फीर क्यों चलते चलते
पथ पर धुन्दल्का सा छाता ह,
मैं भी चला
इस जीवन पथ पर
जीवन का अर्थ पाने को,
पर खुद को ही खो बैठा हू,
खोजूं क्या अब ज़माने को,
मेरी अन्तिम यात्रा
आरम्भ होने ही वाली है
उजले उजले दिन नही होते,
ना राते ही कलि है
सब कुछ इन अनुभवों से
परे सा मुझे नजर यूं आता है
ऐसा लगता है
मेरा इस जग से ना
कोई नाता हमे
इस जग का हुआ
ही कब था ,
जो आज मे जग मे समां पाऊंगा ?
मेरी सोच तो इस अधूरे पन से
कहीँ जायदा है,
इन सारी सोचो के पिछे,
उस पर ब्रह्म से नाता है
अब लगता ह
मेरा अंत निकट को आता है ...

क्यों राख बना डाला

मे जला
मेरे ख्वाब मेरे साथ जले,
मे रोया ,
मेरे ख्वाब मेरे साथ रोये,
मे चिलाया ,
पर तुम ना मेरे साथ रोये,
मैने जी जान से अपने लीया सपने संजोये,
पर तुने मेरे ख्वाबों को,
ना समझा मेरी बातो को,
कोई पागल कहा,
ओर दीवाना कहा,
इसलिये हर पल
मेरे साथ मेरे ख्वाब रोये,
तुमारे आंसू देख,
मे अपने आंसू पोंछ लेता हू
पर अकेले मे कभी रो दीया करता हू
फीर खुद से सवाल करता हू
जब मे एक इन्सान था ,
तो ख्वाब दिए क्यों थे?
क्यों बेटा बना कर पला मुझे ?
अपने आंगन मे बाबुल तुने,
क्यों खिलाया,
मार क्यों ना डाला मुझे?
जो मेरी खुशियाँ तेरी आबरू की मौत थी
तो क्यों ना जीते जी जला दल मुझे?
मेरे ख्वाबों के ही साथ मे?
क्यों ऐसे जिन्दगी दी की?
मे ना जी सका ,
ओर ना मर ही सका !
सिसकती एक आह को
क्यों राख बना डाला तुमने?

दर्द

दर्द मै यू डूबना मुझे भी भाता नहीं
मै जब भी कुछ मुस्कुराता हुआ सा
गीत लिखने बैठा हू
मेरी बेबसी के आंसू बरबस निकल आते ह
की मैं जो पाने चला tha
वो पा ना सका
ओर जाने किस नशे
मै खुद को खो बैठा हू.

मै भी इंतजार मे हू के,
किस दिन मेरी जिन्दगी
दर्द के समंदर से नहा कर निकलेगी
उस दिन मे भी खुद को इस बेपनाह
दर्द से बाहर
पर कर अपनी वास्तविक
खूबसूरती को देख सकूँगा।
चाहत के पुष्प चढाये हमने
पीड़ाओं के मन्दिर में
फिरते रहे तेरी परछाई खोजते
आकांक्षाओं के खण्डहर में
कई बार डूबकर देखा हमने
विरह की गहराईयों में
मिला न कोई हीरा-मोती
इस दर्द के समन्दर में..........

यह यातनाओं का सफर
और लम्बे चौड़े फ़ासले
लँगडाकर चलते है अब तो
दुःख- दर्द के ये क़ाफिले
ढोयेंगी कब तक हमें
साँसों की बैसाखियाँक्यों नही
अब टूट जाते
हसरतों के ये सिलसिले ॰॰॰॰

तेरे सूखे वादों से
दिल की धरती हुई न नम
बिन रिमझिम के निकल गया
इंतज़ार का यह मौसम
ठंडी हवा भी बंद हो गई
राह चलते अब जलते हैं
उड़ती धूल अब अपने सफ़र में
कहीं ज्यादा,
कहीं कम ॰॰॰॰ ।

जो पास रहे पत्थर से बनकर
वे कभी न समझें अपना ग़म
कभी न निकली इस सुन्दर साज़ से
कोई लय या कोई सरगम
जल से खाली मेघ थे जो
बारिश की उनसे आस लगाई
सोचें -अब माथा पकड़
कर कितने मूर्ख निकलें हम ॰॰॰॰ ।