Wednesday, September 5, 2007

क्या सच ही

क्या सच ही
उम्र के साथ इन्सान
अनुभव्युक्त हो जाता ह,
फीर क्यों चलते चलते
पथ पर धुन्दल्का सा छाता ह,
मैं भी चला
इस जीवन पथ पर
जीवन का अर्थ पाने को,
पर खुद को ही खो बैठा हू,
खोजूं क्या अब ज़माने को,
मेरी अन्तिम यात्रा
आरम्भ होने ही वाली है
उजले उजले दिन नही होते,
ना राते ही कलि है
सब कुछ इन अनुभवों से
परे सा मुझे नजर यूं आता है
ऐसा लगता है
मेरा इस जग से ना
कोई नाता हमे
इस जग का हुआ
ही कब था ,
जो आज मे जग मे समां पाऊंगा ?
मेरी सोच तो इस अधूरे पन से
कहीँ जायदा है,
इन सारी सोचो के पिछे,
उस पर ब्रह्म से नाता है
अब लगता ह
मेरा अंत निकट को आता है ...

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