Thursday, November 22, 2007

इक िदन बादलों िक छाई हुई थी घटा घनघोर,
हो के मदमस्त नाच उठे छत पर मनमोहक मोर,
जाने क्यों लगा िक ले गया मन का चैन कोई िचत्तचोर,
रह गया मैं स्तब्ध हत्तपर्भ,
मचा भी न सका शोर ।

कुछ पल के िलए हुआ परेशान,
क्यों िक,
ढूँढ पाना उसको नहीं था आसान,
अचानक हुआ एक ये अहसास,
शायद हो वो यहींं कहीं आस पास ।

परेशानी और डर ने था मन को घेरा,
िक कहीं िकसी ने हम पर जादू-मन्तर तो नहीं है फेरा,
ऐसे में उस खास दोस्त का आना,
और प्यार से बैठा ेके समझाना ।

िक होता है सभी को िजंदगी में एक बार,
लुट जाती है रातों िक नींद और िदल का करार,
ऐसी हालत में ठीक नहीं चुप्पी साधे रहना,
ना तो कभी ना लौटेगा िदल का सुख और चैना ।

नाम न जानूं पता न जानूं,
अजब उलझी ये गुत्थी है,
सुलझाने िक कोिशश में,
फंस जाती ये उतनी है ।

पर मन में उसकी अधूरी सी छवी है,
िक मानोसर्द मौसम के धुंधलाए शीशे के पार खडी है,
क्यों मैं अपने आप को झुटला रहा हूँ,
जाने क्यों सच्चाई से पीछा छुडा रहा हूँ ।

िहम्मत जुटाई बढ़ कर शीशे को पौंछने की,
बोला कोई,
नहीं जरूरत अब कुछ सोचने िक,
देर न कर,
अपनी तृष्णा को शांत कर ले,
हठी न बन,
इकरार कर ले ।

हटाते ही वो पानी िक बूँदें,
िसर चकरा कर लगा घूमने,
ये क्या हो गया था मुझको िक,
अब तक पहचान भी न सका उसको ।

वो कहते हैं, देर आए दुरूस्त आए,
देख कर उन्हें अगले िदन,
थोड़ा शरमाए घबराए,
ईशारे कुछ ना कुछ तो कह गए,
चुप चाप ही हम खड़े रह गए ।

अचानक प्यार से िकसी ने पुकारा,
कहीं तो ध्यान भटक गया है तुम्हारा,
बािरश का आनंद तो लो ही,
पर गरमा-गरम चाय-पकोड़े चखो तो सही ।

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