Thursday, November 22, 2007

ये िदलपढ कर वो चंद शब्द उनकेे,
अहसास धडकनो का लगे बढ़ने,
होठ़ों पर आ जाए िभनी सी मुस्कान,
ये िदल खेले भावनाअों से खेल ।

छेड़ें मन के तार कुछ ख्याल,
अूंहूं छोड़ो इसे...
, कहे कोइ बार बार,
इस अजीब उलझन में पडे़ लगूँ हंसने,
जाने क्यों खेले ये िदल भावनाअों से खेल ।

िकस्सा नहीं ये िसर्फ इस बार का,
लोट़ अाता है जैसे मौसम बहार का,
अभी तो शायद ये जाए बीत,
परिफर खेलेगा ये िदल भावनाअों से खेल ।

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